पूर्ण सिंह नेगी: शिक्षा को समर्पित एक जीवन, जो बना देहरादून की अमर पहचान
देहरादून की शांत और हरी-भरी वादियों में एक ऐसा नाम जन्मा, जिसने अपने जीवन का हर क्षण समाज की सेवा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया—ठाकुर पूर्ण सिंह नेगी। वे न केवल एक प्रतिष्ठित जमींदार और कुशल उद्यमी थे, बल्कि शिक्षा और परोपकार को जीवन का परम लक्ष्य मानने वाले महान दानवीर भी थे।
एक साधारण आरंभ, असाधारण संकल्प
1832 में देहरादून के करणपुर गांव में जन्मे पूर्ण सिंह नेगी एक समृद्ध जमींदार परिवार से थे। धन-धान्य से सम्पन्न होते हुए भी उनके जीवन की असली पूँजी उनकी उदार सोच और समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता थी। उस युग में जब शिक्षा का उजाला सीमित था, उन्होंने न केवल स्वयं ज्ञान प्राप्त किया, बल्कि इसे जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प लिया।
बहुआयामी व्यक्तित्व: जमीन से जुड़ा, भविष्य की सोच रखने वाला
नेगी जी केवल एक ज़मींदार नहीं थे। उन्होंने राजपुर रोड पर ‘पूर्ण सिंह एंड कम्पनी’ के नाम से एक फर्नीचर उद्योग की स्थापना की और देहरादून में कई आलीशान कोठियाँ बनाईं। मगर उनकी असली पहचान थी उनका निःस्वार्थ दान और शिक्षा के प्रति समर्पण। उनके बनाए भवन समाज के लिए संसाधन बने और आय के स्रोत भी।
शिक्षा: उनकी आत्मा का मिशन
1902 में, उन्होंने एक संस्कृत पाठशाला की स्थापना की, जो न केवल शिक्षा का केंद्र बना, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपराओं की रक्षा का माध्यम भी रहा। इसके बाद, डीएवी आंदोलन से जुड़कर उन्होंने अपनी संपूर्ण ऊर्जा इस मिशन में झोंक दी। समाज सुधारक श्री ज्योति स्वरूप के संपर्क में आने के बाद उन्होंने मेरठ स्थित डीएवी स्कूल को देहरादून लाने के सपने को साकार करने का बीड़ा उठाया।
दान का अद्वितीय उदाहरण
पूर्ण सिंह नेगी ने निःसंतान होते हुए भी सम्पूर्ण जीवन समाज के लिए जिया। 1906 से लेकर 1911 तक उन्होंने अपनी अधिकांश संपत्ति—कोठियाँ, जंगल और भूमि—डीएवी ट्रस्ट को दान कर दी। यह संपत्ति उस समय लाखों में आंकी गई थी। देहरादून में आज भी खड़ी “पीली कोठी” इसी त्याग की अमिट छाप है, जिसे उन्होंने अपने निजी धन से बनवाया था।
उन्होंने दो छात्रावास भी बनवाए, जिनमें से एक का नाम “पूर्ण आश्रम” रखा गया। इन हॉस्टलों में दूर-दराज से आए छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा व निवास की सुविधा मिली। अपनी पत्नियों के लिए उन्होंने केवल ₹50 मासिक पेंशन छोड़ी और बाद में वह राशि भी ट्रस्ट को समर्पित कर दी। यह था उनका पूर्ण त्याग।
संकटों के बीच भी अडिग रहे आदर्श
स्कूल के प्रारंभिक वर्षों में कई बार प्रबंधन संबंधी समस्याएँ आईं। लेकिन पूर्ण सिंह का विश्वास कभी नहीं डगमगाया। 1911 में श्री लक्ष्मण प्रसाद के आने के बाद संस्थान ने स्थायित्व पाया और आगे चलकर एक बड़ा शैक्षिक केंद्र बना। इससे उन्हें संतोष मिला कि उनका स्वप्न साकार हो रहा है।
अमर हो गई एक विरासत
नवंबर 1912 में, जब वे 80 वर्ष के थे, उनका देहावसान हुआ। लेकिन उनका जीवन, उनका योगदान आज भी डीएवी कॉलेज, देहरादून की दीवारों में जीवित है। कॉलेज का हर विद्यार्थी उनके सपनों की रोशनी में शिक्षा प्राप्त करता है। “पीली कोठी” आज भी उनके उदार हृदय की गवाह बनी हुई है।
उनके प्रपौत्र श्री सुरेंद्र सिंह नेगी ने उनके मूल्यों को आगे बढ़ाया और देहरादून में एक प्रतिष्ठित वकील बने। लेकिन नेगी जी की असली विरासत वह शिक्षा है, जो आज भी हजारों युवाओं को रोशनी दे रही है।
एक संस्थान, जिसने रचे इतिहास
डीएवी कॉलेज देहरादून एक समय में उच्च शिक्षा का प्रतिष्ठित केंद्र बन चुका था। यहाँ से पढ़े छात्रों ने देश की राजनीति, प्रशासन, साहित्य, विज्ञान और सेना तक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कॉलेज की छात्र संख्या एक समय 20,000 से 30,000 तक पहुँच चुकी थी। इसकी नींव में था—पूर्ण सिंह नेगी का सपना और उनका दान।
प्रेरणा जो पीढ़ियों तक चलेगी
पूर्ण सिंह नेगी का जीवन यह सिखाता है कि असली अमरता धन में नहीं, सेवा में है। उन्होंने जो रास्ता दिखाया, वह बताता है कि समाज की सच्ची सेवा शिक्षा के माध्यम से होती है। वे न केवल एक जमींदार थे, बल्कि एक दृष्टा, सपने देखने वाले, और उन्हें साकार करने वाले कर्मयोगी भी थे।
उनकी गाथा देहरादून के हर नागरिक के लिए प्रेरणा है, और उनकी आत्मा उस हर बच्चे की मुस्कान में जीवित है, जो उनकी छाया में शिक्षित हो रहा है।
पूर्ण सिंह नेगी: एक नाम नहीं, एक युग, जो सदैव जीवित रहेगा।
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